मुद्रास्फीति और अपस्फीति क्या है? व उसके प्रकार

भारतीय अर्थव्यवस्था (Inflation in India) में मुद्रास्फीति और अपस्फीति क्या है/किसे कहते है, मुद्रास्फीति का अर्थ, परिभाषा, मुद्रास्फीति के प्रकार (Types of Inflation in India), मुद्रास्फीति के कारण, मुद्रास्फीति के मापन, मुद्रा संकुचन आदि महत्वपूर्ण जानकारी (Inflation Rate in India) इस प्रकार से है।

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India Inflation and Deflation Types in Hindi

अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति और अपस्फीति (Inflation and Deflation), मांग एवं पूर्ति (Demand and Supply) की तीन स्थितियों में उत्पन्न होती है।

अर्थव्यवस्था में मांग एवं पूर्ति की स्थितियां में मुख्यतः बनी अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति की तीन (3) स्थितियां निम्न है:-

अर्थव्यवस्था स्थितियांमांग एवं पूर्ति स्थितियां
अर्थव्यवस्था की आदर्श स्थितिमांग और पूर्ति एक समान होना (मांग = पूर्ति)
मुद्रास्फीतिमांग, पूर्ति से ज्यादा/अधिक होना (मांग > पूर्ति)
मुद्रा संकुचन या मुद्रा अपस्थितिमांग, पूर्ति से कम होना (मांग < पूर्ति)

मुद्रास्फीति क्या है? Inflation in Hindi – महंगाई, वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें लंबे समय तक उच्च स्तर पर बनी रहती है, तो इसे मुद्रास्फीति (Inflation) कहते है।

मूद्रास्फीति का अर्थ (परिभाषा) – मुद्रास्फीति वह अवस्था होता है, जिसमें मुद्रा का मूल्य गिरता है साथ ही कीमतें बढ़ जाती है। साधारण शब्दों में मुद्रास्फीति वह स्थिति है, जिसमें कीमतें बढ़ती है और मुद्रा का मूल्य गिरता है।

  • मौद्रिक अर्थशास्त्र मौद्रिक स्थिति को विशुद्ध रूप से मौद्रिक घटना मानता है।
  • जब मुद्रा की आपूर्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है, जिसके कारण Inflation बनता है।
  • मुद्रास्फीति हमेशा मौद्रिक क्रिया होता है। मुद्रा की मात्रा में बहुत अधिक विस्तार के कारण, बहुत कम वस्तु पीछा करते हैं।
  • जैसे-जैसे मुद्रा की मात्रा बढ़ता है, कीमतें भी बढ़ती जाती हैं। types of inflation in india
  • मुद्रास्फीति मांग अधिक होने से महंगाई बढ़ती है। मुद्रास्फीति को एक पूर्ण रोजगार घटना (Full Employment) माना जाता है।
  • पूर्ण रोजगार अवस्था से पहले मुद्रा (मूल्य) वृद्धि की स्थिति को ‘अर्द्ध मुद्रास्फीति’ (Semi Inflation) कहा जाता है।
  • पूरी तरह से स्थापित किए जाने के बाद उचित मूल्य निर्धारण की शर्तें बढ़ जाती हैं।
  • जब भी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की अधिक मांग होती है, तो यह मुद्रा की मौजूदा स्थिति पर उपरोक्त आपूर्ति से पूरी नहीं होती है।
  • एक बार पूर्ण रोजगार के स्तर पर पहुंचने के बाद, मुद्रा की मात्रा बढ़ने पर मूल्य (कीमतों) स्तर बढ़ जाता है।
  • यह एक विशुद्धमौद्रिक प्रक्रिया (Purely Monetary Phenomenon) है।
  • इसमें कीमतों में लगातार बढ़ोतरी होती है।
  • यह एक दीर्घकालिक गतिशील प्रक्रिया है।
  • यह उच्च कीमतों की अर्थव्यवस्था नहीं बलिक बढ़ती हुई कीमतों की अवस्था होती है।
  • वास्तविक मुद्रास्फीति के पूर्ण रोजगार (Full Employment) बाद ही उत्पन्न होती है।

अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति के मुख्यतः चार (4) श्रेणियों में बांटा गया है (4 types of Inflation in India)

मुद्रास्फीति का प्रकारमुद्रास्फीति का नामअर्थव्यवस्था स्थितियां
Creeping Inflationरेंगती/घसीटती मुद्रास्फीति3% से कम (नियंत्रित स्थिति)
Walking Inflationचलती मुद्रास्फीति3-5 % से कम (नियंत्रित स्थिति)
Running Inflationदौड़ती मुद्रास्फीति5-10% से कम (चिंतित स्थिति)
Galloping/ Hyper Inflationतेज दौड़ती मुद्रास्फीति10% से अधिक (आर्थिक मंदी स्थिति)

मुद्रास्फीति की वह स्थिति जिसमें मुद्रास्फीति के साथ उत्पादन में वृद्धि  होती है तथा रोजगार के अतिरिक्त अवसर सृजित होते है, ग्रोथ मुद्रास्फीति (Growthflation) कहलाती है।

विकासशील देशों के लिए मुद्रास्फीति 4-5% प्रतिशत अच्छी मानी जाती है जबकि विकसित देशों के लिए 1-2 प्रतिशत होनी चाहिए।

  • Galloping Inflation – यदि मुद्रास्फीति की निरंतर बढ़ती हुई दर वार्षिक स्तर पर 2 अंकों में बढ़ती है तथा दशकीय स्तर पर 3 अंकों में बढ़ती है।
  • Running Inflation – तेजी से बढ़ती हुई मद्रास्फीति की दर जो वार्षिक स्तर पर 3 अंकों में होती है।
  • Hyper Inflation – जब Runaway Inflation पूर्णतः अनियमित हो जाए।
  • DISINFLATION (मुद्रास्फीति की घटती दर) – मुद्रास्फीति की दर कम (घटती) तथा वस्तुओं की कीमतें बढ़ती है। 
  • DEFLATION (मुद्रास्फीति की नकारात्मक दर) – इसमें वस्तुएं सस्ती होती है, इससे उत्पादनकर्ताओं को हानि होती है तथा उत्पादन कम होने लगता है, इससे बेरोजगारी बढ़ती है। अतः इसे आर्थिक संकट/मंदी भी कहते है।

वर्ष 2008-2009 में आर्थिक मंदी की स्थिति रही थी और इसमें पूर्व आर्थिक महामंदी 1929 में आई थी।

अपस्फीति का अर्थ/परिभाषा – जब अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की तुलना में मुद्रा (धन) की मात्रा में कमी हो जाती है, अपस्फीति (Deflation) कहलाता है।

जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा (धन) की मात्रा में कमी एवं वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा में वृद्धि होती है, तो इस स्थिति को मुद्रा अपस्थिति (Deflation) कहा जाता है।

  • मुद्रा की मात्रा कम होने से मांग में कमी आती है, परन्तु वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा अधिक होने के कारण उनकी कीमतें गिर जाती है।
  • वस्तु और सेवा की मात्रा अधिक होने से उनका मूल्य कम हो जाता है। साथ ही मुद्रा की मात्रा कम होने से उसका मूल्य अधिक हो जाता है।
  • अर्थव्यवस्था में प्रारंभ से ही वस्तुओं और सेवाओं की अधिकता होता है, जो उत्पादन में कमी की ओर जाता है, जिससे कम रोजगार होता है, जिससे उपभोक्ता की आय समाप्त होती है और क्रय शक्ति घटती है।
  • सस्ते होने पर भी चीजें नहीं बिकती हैं, जिसे आर्थिक मंदी (Economic Slowdown) भी कहा जाता है।
  • एक आर्थिक मंदी मुद्रास्फीति की तुलना में अधिक विध्वंसकारी होता है, क्योंकि यह चीजों को सस्ता बनाती है। क्रय शक्ति उतनी कम हो जाती है।
  • क्रय शक्ति कम होने से बाजार में तरलता भी कम हो जाती है, जिससे उत्पादन भी कम हो जाता है और मंदी का सामना करना पड़ता है। यह प्रक्रिया चक्रीय क्रम में चलता है।

अपस्फीति के प्रभाव (Effects of Deflation) निम्न प्रकार से है-

  • मांग की कमी आर्थिक मंदी उत्पन्न होता है।
  • उत्पादन की कमी होने लगता है।
  • रोजगार में कमी आती है।
  • मुद्रा की मात्रा में कमी के साथ मूल्य में वृद्धि होती है।
  • मुद्रा मुल्य बढ़ जाता है, ऋण देने वाले बैंको को लाभ होना।

जब मुद्रास्फीति और अपस्फीति एक साथ उत्पन्न हो जाती है, तो उस स्थिति को निस्पंद की स्थिति कहलाता है।

यदि अर्थव्यवस्था में आर्थिक मंदी तथा मुद्रास्फीति दोनों के लक्षण एक साथ उपस्थित हो तो इसे Stagflation कहते है।

मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए केन्द्रीय बैंक ब्याज दरों को बढ़ाता है, इससे निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इस कारण उत्पादन में वृद्धि नहीं होती तथा बेरोजगारी बढ़ती है।

इससे केन्द्रीय बैंक असमजंस (दुविधा) में होता है कि क्या उपाय किया जाये।

मुद्रास्फीति बढ़ने के लिए तरलता व अन्य कारण जिम्मेदार होते है। RBI केवल तरलता को नियंत्रित कर सकता है, अन्य कारकों का समाधान RBI की मौद्रिक नीति से संभव नहीं है।

अतः मुद्रीक नीति निर्धारित करने के लिए RBI Core Inflation निकालती है।

Core Inflation = Inflation - बाह्य कारकों का प्रभाव

वस्तुओं की मांग बढ़ने के कारण जो मुद्रास्फीति होती है उसे Demand-Pull Inflation कहते है। वस्तुओं की मांग बढ़ने के कारणों में जनसंख्या वृद्धि, ब्याज दरों का कम होना, बाजार में काला धन की अधिकता, विदेशी पूंजी का अत्यधिक प्रवाह, सरकार द्वारा गैर-येाजनागत अधिक व्यय आदि प्रमुख है।

वस्तुओं की लागत बढ़ने के कारण जो महंगाई आती है, उसे लागत जन्य मद्रास्फीति कहते है। लागत बढ़ने के कारणों में कच्चे माल की कीमतें बढ़ने, ब्याज दरे बढ़ने, मजदूरी बढ़ने से लागत बढ़ती है।

वस्तुओं व सेवाओं की आपूर्ति बाधित होने से जो महंगाई आती है। कारण – परिवहन में रूकावट, अधिक बारिश के कारण परिवहन बाधिक होना, काला बाजारी, सरकार की आर्यात-निर्यात नीति

भारतीय अर्थव्यवस्था (India Inflation) में मुद्रास्फीति (महंगाई) के प्रमुख कारण निम्न है:-

  • विकसित देशों की उपभोक्तावादी संस्कृति
  • मुद्रा का अवमूल्यन
  • अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तरलता का बढ़ना।
  • अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल की कीमतें बढ़ना ।
  • ग्लोबल वार्मिंग

उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण विकसित देश अधिक उपभोग करते है। अतः ये आयात अधिक व निर्यात कम करते है। वे सदैव देशों का अधिकांश उत्पादन विकसित देश आयात कर लेते है।

जिससे विकासशील देशों में वस्तुओं व सेवाओं की आपूर्ति कम हो जाती है। निर्यात से अर्जित पूंजी को भी पुनः विकसित देशों में जमा करवा दिया जाता है।

विकासशील देश अपने निर्यात बढ़ाने के लिए लगातार अपनी मुद्रा का अवमूलन करते है, इससे हमारे उत्पाद विदेशी बाजार में सस्ते तथा उनके उत्पाद हमारे बाजार में महंगे हो जाते है।

अतः यह एक प्रकार से विकासशील देशों द्वारा विकसित देशों को दी जाने वाली सब्सिडी हो जाती है।

पर्यावरणविद्धों का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण कहीं अनावृष्टि तो अतिवृष्टि हो रही है, जिससे उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभव पड़ा है और महंगाई बढ़ी है।

वर्ष 1991 से पहले भी भारत में महंगाई एक सामान्य समस्या थी। लेकिन तब इसके लिए घरेलू कारक अधिक उत्तरदायी थे, किन्तु आर्थिक सुधार (1991) के बाद से मुद्रास्फीति के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कारक अधिक महत्वपूर्ण हो गए है।

  • पिछले एक दशक में मजदूरी की दरों में 14% की वृद्धि हुई जबकि हमारी विकास दर 7% रही है।
  • पिछले दशक में हमारे कृषि क्षेत्र की दर 2% रही है जबकि कृषि उत्पादों की मांग अधिक रही है।
  • पिछलें दो दशकों में प्रोटीन युक्त भोजन की मांग अधिक बढ़ी।
  • सरकार के कल्याणकारी कार्यक्रम। जैसे- मनरेगा (MANREGA) 

– व्यय और उत्पादकता का समन्वय नहीं है। types of inflation in india

– ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी दरें बढ़ गई है। जिससे कृषि उत्पादों की लागतें बढ़ गई है।

– कुशल श्रमिकों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

– गांवों से शहरों की तरफ होने वाला पलायन (प्रवास) थम गया है। इससे शहरों में श्रमिकों की कमी हो गयी है। जिससे मजदूरी की दरें भी बढ़ गई है।

  • हमारा राजकोषीय घाटा घरेलू उत्पाद (GDP) के 5% से अधिक है, किन्तु ये 3% होना चाहिए। इस राजकोषीय घाटे का मूल कारण गैर-योजना व्यय है।
  • विकासशील देशों में अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए अर्थव्यवस्था में मांग सृजित करने के लिए अतिरिक्त धन की आपूर्ति करनी होती है।
  • विकासशील अर्थव्यवस्था में उत्पादनकर्ता अपने प्राइस पावर (Price Power) को चैक करते है, इससे कीमतों में वृद्धि होती है।
  • भारतीय रूपये का अवमूल्यन होना।
  • Infrastructure का कमजोर होना।
  • तकनीकी पिड़छापन।
  • मानव संसाधनों की गुणवत्ता अच्छी नहीं है।
  • काला बाजारी।
  • महंगाई, महंगाई को प्रोत्साहन देती है जिससे मुद्रा का मूल्य निरंतर गिरता जाता है और अन्ततः ये मुद्रा प्रणाली को ध्वस्त कर देता है। जैसे – जिम्बाबे में हुआ।
  • मुद्रास्फीति में बचत हतोत्साहित होती है क्योंकि मुद्रास्फीति में ऋणदाता घाटे में रहता है तथा ऋण लेने वाला लाभ में रहता है। इससे निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जिससे उत्पादन कम होता है तथा बेरोजगारी बढ़ती है।
  • इससे निर्यातों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे भुगतान संतुलन की स्थिति (संकट) उत्पन्न होे जाती है।
  • असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों पर सर्वाधिक दुष्प्रभाव पड़ता है।
  • संगठित क्षेत्र में भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

FISCAL DRAG क्या है? (Fiscal Drag in Hindi) – महंगाई की स्थिति में संगठित क्षेत्रों में कार्य करने वाले मौद्रिक आय (Monetary Income) में वृद्धि हो जाती है लेकिन वे उपरी ‘Tax Slabs‘ में चले जाते है, इसलिए उन पर Income Tax अधिक लग जाता है।

जिसमें उसकी वास्तविक आय (Real Income) कम हो जाती है, क्रय शक्ति कम हो जाती है, जिसे राजकोषीय कर्षण (Fiscal Drag) कहते है।

  • इससे सरकारी परियोजनाओं का व्यय बढ़ जाता है जिससे सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ जाता है।
  • मुद्रास्फीति की स्थिति में कालाबाजारी की समस्या बढ़ जाती है। types of inflation in india
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था की साख पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, इससे विदेशी निवेश (Foreign Investment) पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  • वस्तुओं एवं सेवाओं के महंगे होने से लोगों के जीवन स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

मौद्रिक नीति उपाय – आरबीआई का उत्तरदायित्व है कि आरबीआई अपनी मौद्रिक नीति के द्वारा बाजार की तरलता को नियंत्रित करने की कोशिक करें। इसके लिए आरबीआई अपनी दरों (CRR, SLR) को बढ़ाती है।

  • आरबीआई गुणात्मक उपाय भी करती है जिसके तहत प्रचार-प्रसार करना, बैंकों को निर्देश देना, क्रेडिट की राशनिंग करना आदि उपाय आते है।

राजकोषीय उपाय – इसके अंतर्गत सरकार अपने गैर-योजनागत व्यय को कम करती है, इसके लिए राजकोषीय घाटे को कम करती है।

निर्यात पर रोक तथा आयात को प्रोत्साहन – जिन वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही होती है उन्हें वायदा बाजर से हटा दिया जाता है।

  • दीर्घकालिक दृष्टि से सरकार उत्पादन को प्रोत्साहन देती है।
  • सरकार कालाबाजारी के विरूद्ध कार्यवाही करती है।
  • सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली की ओर ज्यादा मजबूत किया जाता है।

मुद्रास्फीति का मापन (Inflation Measuring) मुख्यतः 2 (दो) तरीकों से किया जाता है:-

  • थोक मूल्य सूचकांक (WPI- Wholesale Price Index)
  • उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI- Consumer Price Index)

ये मूल्य सूचकांक (price index) क्या है?/किसे कहते है? चलिये जानते है-

  • थोक मूल्य सूचकांक (wholesale price index (WPI)) व्यापार वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी किया जाता है।
  • नया मूल्य सूचकांक 2010 से शुरूआत हुआ था।
  • आधार वर्ष 2004-05 माना जाता है।
  • थोक मूल्य सूचकांक (WPI) में केवल वस्तुओं को शामिल किया जाता है।
  • Wholesale Price Index (WPI) में मैन्यूफेक्चरिंग सेक्टर को अधिक भारांश दिया जाता है।
  • WPI (थोक मूल्य सूचकांक) राष्ट्रीय स्तर पर WPI की गणना की जाती है।
  • WPI अर्थव्यवस्था का मुख्य सूचकांक (मुद्रास्फीति का) है। आरबीआई की मौद्रिक नीति का आधार WPI होता है।
  • थोक मूल्य सूचकांक (WPI) के चार प्रकार से गणनाएं होती है – (अ) प्राथमिक वस्तुएं – 102, (ब) ईंधन – 19,  (स) विनिर्माण – 555,  (द) मुख्य WPI – 676
  • मासिक आधार पर गणना आकड़े जारी – 15 तारीख को
  • CPI (Consumer Price Index) सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा जाती किया जाता है।
  • नया उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) 2011 में शुरूआत किया गया था।
  • आधार वर्ष 2010 को माना जाता है।
  • इसमें 200 उत्पाद शामिल किये जाते है।
  • वस्तुओं व सेवाओं दोनों को शामिल किया जाता है।
  • इसमें उपभोक्ता वस्तुओं को अधिक भारांश दिया जाता है।
  • CPI की गणना क्षेत्रीय स्तर पर की जाती है। (CPI areas- जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा)
  • केन्द्रीय व राज्यीय सरकार के कर्मचारियों को महंगाई भत्ता CPI के आधार पर दिया जाता है।
  • CPI के चार प्रकार जारी किया जाता है – (अ) ग्रामीण सीपीआई (ब) शहरी सीपीआई (स) संयुक्त सीपीआई
  • मासिक आधार पर गणना आकड़े जारी – 12 या 13 तारीख को

भारत में मुद्रास्फीति मूल्य सूचकांक (WPI) है जबकि विकसित देशों में CPI को मुख्य सूचकांक के रूप में काम लिया जाता है। भारत में भी CPI को मुख्य सूचकांक बनाने के प्रयास चल रहे हैं, क्योंकि,

  • WPI थोक मूल्यों के उतार-चढ़ाव को दर्शाता है जबकि महंगाई का प्रभाव आम आदमी पर पड़ता है और आम आदमी खुदरा मूल्य पर वस्तुएं खरीदता है।
  • मुद्रास्फीति मूल्य सूचकांक (WPI) में केवल वस्तुओं को शामिल किया जाता है, सेवाओं को नहीं, जबकि CPI में सेवाओं को भी शामिल किया जाता है और जन साधारण सेवाओं के मूल्य से भी प्रभावित होता है।
  • WPI में मैन्यूफेक्चरिंग वस्तुओं को अधिक भारांश दिया जाता है जबकि CPI में उपभोक्ता वस्तुओं को अधिक महत्व दिया जाता है और आम आदमी उपभोक्ता वस्तुएं ज्यादा खरीदता है।

इन्हीं कारणों को ध्यान में रखते हुए CPI की नई सीरीज शुरू की गई है। यह CPI पूरे देश के लिए 1 CPI जारी किया जाता है जबकि पहले श्रम मंत्रालय के द्वारा अलग-अलग प्रकार के CPI जारी किये जाते थे।

पहले CPI के आकड़े 1/2 माह के विलम्ब से आते थे इसलिए नया CPI 12 दिन के विलंब से ही जारी कर दिया जाता है।

  • आरबीआई को WPI के स्थान पर मुद्रास्फीति के मुख्य सूचकांक के रूप में CPI को अपनाना चाहिए।
  • मुद्रास्फीति का लक्ष्य 4% रखा जाना चाहिए। जिसमें +/- हो सकती है। पहले 12 महीने में इसे कम करके 8% तक, अगले 12 महीने में 6% तक तथा इसके बाद इसे क्रमिक रूप से 4% तक लाया जाना चाहिए।
  • आरबीआई को अपना पूरा ध्यान मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने पर केन्द्रित करना चाहिए।
  • जीडीपी ग्रोथ, इन्प्लायमेंट सृजन, आयात-निर्यात, आदि मुद्दे सरकार पर छोड़ देना चाहिए।
  • मौद्रिक नीति समिति बनाकर उसके आधार पर मौद्रिक नीति निर्धारित की जानी चाहिए।
  • सरकार को अपना राजकोषीय घाटा 3% तक लाना होगा। इसके लिए FRBM Act 2013 (fiscal responsibility and budget management act) को लागू किया जाना चाहिए।
  • बाजार स्थिरीकरण योजना (MSS: Market stabilization scheme) को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
  • DMO (Debt Management Office) का कार्य शुरू कर दिया जाना चाहिए तथा भारत सरकार को ऋणों की व्यवस्था DMO द्वारा की जानी चाहिए।
  • भारत की जीडीपी में सेवाओं का योगदान लगभग 60% है, अतः सेवाओं के मूल्य में आने वाले उतार-चढ़ाव को नापने के लिए अलग से सूचकांक की आवश्यकता है। types of inflation in india

अभिजीत सेन समिति ने इस सूचकांक की संस्तुति की, कि वस्तु के उत्पादन में आने वाले उतार-चढ़ाव को मापा जाए।

लाभ (1) सरकार की कर प्रणाली का प्रभाव नहीं होगा। (2) परिवहन का प्रभाव दूर हो जाएगा।

वर्तमान में मुद्रास्फीति के मुख्य सूचकांक के रूप में DPI को ही जारी रखा जाना चाहिए।

  • CPI में मुद्रास्फीति की दर (9-10 प्रतिशत) ज्यादा है। यदि इसे मुख्य सूचकांक के रूप में रखा जाता है तो आरबीआई को ब्याज दरें बढ़ानी पड़ेगी और ब्याज दरें बढ़ती है तो निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
  • उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) में उपभोक्ता वस्तुओं को अधिक भारांश दिया जाता है जबकि अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता वस्तुओं की भागीदारी कम है।
  • CPI में केवल 200 वस्तुओं को शामिल किया गया है जबकि DPI में 676 वस्तुएं शामिल है जो कि पूरी अर्थव्यवस्था की स्थिति को दर्शाता है।
  • CPI का आंकड़े एकत्रण DPI की तुलना में अधिक जटिल है। आंकड़े एकत्रण का व्यवस्थित तंत्र भारत में अभी विकसित नहीं हुआ है।
GDP Deflator = Nominal GDP / Real GDP x 100

जहाँ: Nominal GDP = बाजार मूल्य पर जीडीपी, Real GDP = स्थिर मूल्यों पर जीडीपी है। types of inflation in india

  • ये मुद्रास्फीति वार्षिक स्तर पर निकाली जाती है।
  • अप्रैल 2014 से मुद्रास्फीति का मुख्य सूचकांक के रूप में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) को अपना लिया गया है।

अर्थशास्त्र क्या है और उसके प्रकार- परिभाषा, उदाहरण

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